पत्रकारों की सुरक्षा – एक अनदेखा सवाल

बदायूँ।कई पत्रकारों को या तो “देश विरोधी” कहकर बदनाम किया जाता है, या उन पर फर्जी मुकदमे लाद दिए जाते हैं। गाँव से लेकर बड़े शहरों तक, पत्रकारों को सिस्टम, राजनीति, माफ़िया और कभी-कभी स्वयं समाज से ही खतरा होता है।
“अगर पत्रकार नहीं रहेगा…
तो वो सवाल कौन पूछेगा?
वो सच कौन बताएगा?”
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। लेकिन क्या यह स्तंभ आज सुरक्षित है? क्या चौथा स्तम्भ अन्य तीन स्तम्भ की भांति सुरक्षित व सुविधाओं से परिपूर्ण है ? शायद नहीं। आए दिन पत्रकारों पर हो रहे हमले, धमकियाँ, मानसिक उत्पीड़न और हत्या की ख़बरें इस सच्चाई को उजागर करती हैं कि पत्रकारों की सुरक्षा एक ऐसा सवाल है जिसे देश ने अब तक गंभीरता से नहीं लिया।
पत्रकार जब ज़मीनी सच्चाई सामने लाने की कोशिश करता है चाहे वह किसी घोटाले का खुलासा हो, प्रशासनिक विफलता की रिपोर्ट हो या अपराध की जाँच तब वह उन शक्तियों के निशाने पर आ जाता है जो अंधेरे में रहना चाहती हैं। कई पत्रकारों को या तो “देश विरोधी” कहकर बदनाम किया जाता है, या उन पर फर्जी मुकदमे लाद दिए जाते हैं। गाँव से लेकर बड़े शहरों तक, पत्रकारों को सिस्टम, राजनीति, माफ़िया और कभी-कभी स्वयं समाज से ही खतरा होता है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि बहुत सारे हमलों की कोई न्यायिक कार्रवाई भी नहीं होती, जिससे अपराधियों और भ्रष्टाचारियों के हौसले बुलंद रहते हैं।
सरकारें पत्रकारिता की स्वतंत्रता की बातें तो करती हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर सुरक्षा और सम्मान देने में विफल रही हैं। अब तक पत्रकार सुरक्षा कानून सिर्फ मांगों और ड्राफ्ट तक सीमित है। दूसरी ओर, मीडिया संस्थान भी अपने फील्ड पत्रकारों की सुरक्षा को गंभीरता से नहीं लेते न बीमा, न प्रशिक्षण, न क़ानूनी सहायता। ज़रा सोचिये अगर पत्रकार असुरक्षित रहेगा तो लोकतंत्र भी असहाय हो जाएगा। इसलिए “राष्ट्रीय पत्रकार सुरक्षा कानून” को तत्काल संसद में लाया जाए। समाज को भी समझना होगा कि पत्रकारों की आवाज़ दबेगी तो आपकी भी आवाज़ खो जाएगी।
पत्रकार का सवाल किसी एक व्यक्ति का नहीं, समाज और लोकतंत्र के अस्तित्व का सवाल है। आइए, हम सब मिलकर इस अनदेखे सवाल को अब और अनदेखा ना करें।
एम. आरिफ़ खान ✍️ (राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ) आदर्श पत्रकार एकता ट्रस्ट (रजिस्टर्ड )

शकील भारती संवाददाता

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